जूठी औरत
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इवनिंग वाक से लौट कर अभी गेट खोल ही रही थी कि फोन की घंटी बजने लगी |स्क्रीन पर अनजान नंबर चमक रहा था सोचा अभी चेंज कर के ही फोन रिसीव करुँगी |नंबर सेव नहीं था तो लगा होगा कोई बैंक लोनिंग या क्रेडिट कार्ड वाला फोन | परेशान करके रख दिया है इन लोगों ने .. फोन टेबल पर रख मै वाश रूम में चेंज करने चली गई |आज कुछ ज्यादा लंबी वाक् हो गई | थकान और पसीने से तरबतर हो गये थे |सोचा नहा कर चेंज कर ले पहले |और बस दो मिनट शावर ले कर हाउसकोट डाला और भीगे नम चेहरे पर रोजवाटर स्प्रे कर ही रही थी कि पुष्पा की आवाज़ आई |
'' दीदी आपका फोन लगातार बज रहा है यहीं ला दूँ ? ''
''उफ़ बड़ी मुश्किल है रुको तुम चाय लगाओ हम निकल रहे है खुद देख लेंगे ''
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शावर के बाद तरोताजा तन मन और वाक् से हल्का बदन अब चाय की तलब जोरों से लग आई थी पुष्पा को आवाज़ देने ही जा रही थी चाय आ गई एक सिप लेते ही उसकी तरफ देखा तो वो हंस पड़ी !
'' बिना चीनी की है दीदी आजकल आपका वजन बढ़ गया है न आपही तो कही थी बस एक सुबह की चाय छोड़ कर बाकी में हमे चीनी न देना |''
कह कर वह मुस्करा दी और मोबाइल फोन आगे कर दिया |
'' अब आप इसे भी देख लीजिये तब तो बजे जा रहा है | ''
'' अरे हाँ लाओ देखते है |''
मैने उसके हाथ से फोन ले कर देखा हर दो से पांच मिनट के अंतर पर करीब सात आठ मिस काल थी वो भी एक ही नम्बर से जरुर कोई जानने वाला ही होगा वरना आजकल कौन करता है इतने फोन या कोई काम होगा वो भी जरूरी अनजान फोन उठाने को तो कभी कभार उठा भी लेते है पर कॉल बैक नहीं करते पर इस कॉल को इग्नोर करने का न जाने क्यों दिल नहीं किया . अभी आधे घंटे बाद करती हूँ फोन यह सोच कर कुछ बहुत जरूरी काम थे उसे निपटाने में लग गई अभी पन्द्रह मिनट भी नहीं हुआ फिर बज उठा फोन और पुष्पा को जैसे बिजली का करेंट लगा हो वो चीख उठी -
'' अरे दीदी फिर वही फोन अब ये दसवां फोन है | ''
फोन उठाते ही उधर से किसी ने पूछा |
'' अनुप्रिया दीदी का नंबर है ? प्लीज़ उनसे बात करवा दीजिये |''
'' मै अनुप्रिया बोल रही हूँ आप कौन ? |''
'' अरे अनु दीदी आप ने मुझे नहीं पहचाना ? भूल गई न अब आप बताइये पहले मै कौन हूँ| ''
बड़ी जानी पहचानी आवाज़ पर कौन है ये इतने अपनेपन और अधिकार से बोल रही है . अनु तो मुझे बस पूर्वा बुलाती है कभी लाड़ से तो कभी खीझ कर पर उससे तो पिछले हफ्ते ही बात हुई थी अब्ब्ब ये कौन है... ओह कैसे भूल गई इसे -
'' अरे रूपा तुम कहाँ खो गई थी इतने दिन बाद अब याद आई अनु दी की हमें तुमसे बात नहीं करनी जाओ |''
'' अरे ना दीदी आप तो सब जानती है |हम भला आपको कैसे भूल जायेंगे |फोन खो गया तो नंबर सारे ही चले गये फिर नेहा के पास गुडगाँव रहे करीब साल भर |
उसकी शादी का कार्ड देने हम आये थे |उसके बाद आप से एक बार ही मिलना हुआ | हम ही उलझे रहे बेटी की नई नई शादी की उलझने सुलझाने में | वह दोनों भी खूब झगड़ते और हमारा दिल बैठ जाता .....क्या करें कि दोनों की गृहस्थी राह पर आ जाये इसी लिये बीच-बीच में वहां जाते रहते ,
अब जा कर करीब साल भर से यहाँ है आपका पता भी भूल गये ,लिखा तो था नहीं एक दिन गये भी तो पहचान ही नहीं पाये |तीन चार में सब साल में कितना बदल गया है | यह नंबर भी बड़ी मुश्किल से मिला हमें | पूर्वा दी के आफिस से लिया |उनसे भी अभी मुलाकात नहीं हुई | आप को बहुत कुछ बताना था बहुत ढेर सारी बातें करनी है |लिपट कर रोना है |''
इतना कह कर वह खामोश हो गई मानो कुछ कहने के पहले अचकचा रही हो |
'' बोलो न क्या कहना है |''
'' सब से पहले ये बात हम आपको ही बताना चाहते हैं | पर फोन पर नहीं आ कर बताएँगे |
आप अपना पता ठीक से लिखवा दीजिये |
हम कल ही आयेंगे आपके पास | आपसे बहुत ढेर सारी बातें करनी हैं |''उसकी आवाज़ में खनक थी कभी | चहकती तो कभी तनिक देर को खामोश हो जाती और लगता कुछ कहते-कहते रुक गई | पन्द्रह मिनट तक नॉन स्टॉप बकबक करती रही बेटी के बारे , में फिर उन दिनों की याद कर जब मुझसे मिली थी ,बोलते-बोलते गला भर जा रहा था और मुझे फोन से बात करते हुये उसकी दोनों आँखों से बहते आसुओं का अहसास हो रहा था |मैने उससे पूछा -
''रूपा कल कितने बजे आओगी ? ''
'' दीदी हमारा बस चले तो अभी आ जायें पर आज नहीं आ सकते अब कल कब आयेगा |यही बाट ताकते रात कैसे बीतेगी |आप नहीं जानती हम आज कितने खुश हैं |हमें लगा दुनिया की इस भीड़ में आप का हाथ हमसे छूट गया |अब , कल शाम चार बजे आ जायेंगे |फिर सात बजे तक आप के साथ रहेंगे , आपको कहीं जाना तो नहीं है न ?'' |
'' तुम आ जाओ |मै इंतजार करुँगी |जाना भी होगा तो चार बजे के बाद कही नहीं जाउंगी | ''
कह कर फोन रख दिया और उसका नंबर मोबाइल में सेव कर लिया |
तीन चार वर्ष के लंबे अंतराल के बाद आये इस फोन ने मन में हलचल मचा दी |क्या बताना चाह रही है सच कहूँ तो मेरा भी मन कर रहा था वो आज अभी आ जाये | न जाने क्यों एक मोह सा है उससे | ऐसा नहीं कि बीते दिनों में उसका ख्याल नहीं आया | बहुत बार आया फिर गुस्सा भी आया और ये भी सोचा होता है ऐसा , जब किसी को ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाओ और सही राह पकड़ा दो तो कई बार आगे भी निकल जाते है लोग और पीछे पलट कर नहीं देखते | आज की दुनिया की यही रीत है और दिमाग से झटक देती उसका ख्याल ,फिर कभी लगता होगी कहीं दुनिया की भीड़ में अब वह खुद को संभाल लेगी ,वो विस्मृति तो नहीं पर धूमिल स्मृतियों में जाने लगी ही थी कि अचानक फिर प्रगट हो गई |
रात का खाना निपटा कर कुछ पढने बैठी पर मन आज किसी किताब में नहीं लग रहा , मन तो बीस बाईस साल पहले के गलियारों में भटक रहा है |उन दिनों शहनाज़ हुसेन का बड़ा नाम था , सभी अभिजात्य वर्ग की लड़कियों और महिलाओं में उनके हर्बल प्रोडक्ट और पार्लर दोनों ही चल रहे थे साथ ही उनके ग्रूमिंग और प्रोफेशनल क्लासेस भी बहुत लोकप्रिय थे | हर्बल प्रोडक्ट के नाम पर बहुत बड़ा नाम था शहनाज़ हुसेन का | मैने भी उन्ही शुरू के दिनों में उनके सारे कोर्सेस कर डाले | यहाँ तक इंटरनेशनल प्रोफेशनल कोर्स भी ,जो काफी मंहगा भी था पर कुछ जिद और खाली वक्त फिर सहेलियों का साथ भी था | फिर क्या पापा को बहुत समझा कर अपनी जिद मनवा ही ली और दिल्ली जा कर पूरा कोर्स कर सौन्दर्य विशेषज्ञा की डिग्री ले ही आये |
कुछ दिन बाद मैने अपना पार्लर और ट्रेनिग स्कूल खोला | खूब अच्छा चल रहा था पार्लर और ट्रेनिग सेंटर | यह आईटी कालेज के पास था जबकि मै हजरतगंज में रहती थी | आते-आते दस तो बज ही जाते , मुझे अच्छी तरह से याद है वो जाड़े के दिन थे मै घर से आकर बैठी ही थी तभी दो औरते आ कर खड़ी हो गईं जिनमे एक पास के रामकृष्ण मठ के अस्पताल की सीनियर नर्स थी और दूसरी करीब चौबीस पच्चीस वर्ष की लड़की थी | उसके चेहरे पर नजर पड़ी तो उसे देखती ही रह गई | मानो वही टिक कर रह गई नज़रें |
वो बेहद खूबसूरत थी | बदन की रंगत संगेमरमर सी सफ़ेद पर कुछ ललाई लिये हुये | उसकी सुरमई आँखे हरी सी या कभी तो मुझे लगता स्मोकी आईज शायेद इसे ही कहते है हरी और स्लेटी रंग की आँखे | नैन नक्श तीखे ,बदन बहुत सुगढ़ और रच-रच कर तराशा हुआ .. हाँ वो इतनी ही खूबसूरत थी जिसे शब्दों नहीं ढाला जा सकता |मै बस अपलक देखती रह गई उसे ,तभी साथ आई उस सिस्टर (नर्स ) ने मुझसे कोर्स के बारे में पूछा , कितना समय लगेगा , कितनी फीस होगी कितने महीने का कोर्स है | वह सब जानकारी विस्तार से लेती रही और वह सुंदर लड़की चुपचाप बैठी सुनती रही , उसकी झील सी आँखों में गहन उदासी थी एक खालीपन था , वह खोई खोई सी लड़की न जाने क्या सोच रही थी | कोर्स के बारे में बड़ी रूचि से सुन रही थी पर फीस सुन कर उसका चेहरा उतर गया था और उदासी तैर गई उसके चेहरे पर ! तभी सिस्टर ने मुझसे हाथ जोड़ कर कहा -
'' मैम आप इसे सिखा दीजिये ईश्वर आपको बहुत देगा | आप इसकी फीस कम कर दीजिये यह बहुत जरूरत मंद है बड़ी परेशान है |''
मुझे लगा शायेद यह लड़की इनकी रिश्तेदार है पर सिस्टर ने बताया यह इनके अस्पताल में दवा लेने आती है इसका नाम रूपा है | रायबरेली जिले के कसबे की रहने वाली है | यहाँ लखनऊ के डालीगंज में अपनी जेठानी के पास ही अभी छह महीने से रह रही है | कहती है वापस नहीं जायेगी गाँव , मैने फीस कम कर के उसे बता दिया और उसने सर हिला कर ठीक का इशारा किया और वापस जाने लगी |जाते-जाते सिस्टर ने पूछा 'क्या ये परसों से क्लास के लिये आ जाये , मेरे हां कहने पर दोनों कमरे से बाहर निकल गई | मै शीशे के दरवाज़े से उन्हें जाते हुये देख रही थी और कुछ सोच रही थी | अचानक मैने उनको आवाज़ दी , वो दोनों ही पलट कर देखने लगी मैने उन्हें इशारे से वापस बुलाया और कुछ देर बैठने को कहा |पर सिस्टर को अस्पताल के लिये देर हो रही थी वो रूपा को छोड़ कर चली गई |मैने रूपा से पूछा -
'' रूपा तुम पैसे कहाँ से लाओगी ?''
'' दीदी किसी रिश्तेदार से उधार लेंगे | ''
'' किससे लोगी | कौन देगा तुम्हे इतने पैसे और वापस कैसे करोगी ?''
''धीरे-धीरे कर के लौटा देंगे जब काम चलने लगेगा या कही नौकरी लग जायेगी | ''
मै उसको देखती रही फिर उसे सहज कर के बिठाया और मेड से दो चाय मंगवाई |उसे कप पकड़ा कर मै चाय सिप करने लगी और धीरे-धीरे उससे कुछ कुछ पूछती भी जा रही थी | पैसे के बारे में उसने बताया उसके कोई बहनोई हैं जिससे उधार लेने की सोच रही है | उसकी बातें सुन कर थोड़ी देर में सोचती रही आज के इस वक्त में कोई भी इसे पैसे ऐसे तो नहीं दे देगा जवान खूबसूरत बेसहारा औरत से वह कैसे वसूली करेगा |यह सोच कर मैने पल भर में एक निर्णय लिया और उससे कहा -
''रूपा तुम कल से आ जाओ किसी से कोई पैसे वैसे उधार न लेना बस यहाँ मन लगा कर सीखो |
''अगले दिन जब मै पहुंची तो वो आ चुकी थी | तीन महीने का कोर्स होता है और बैच शुरू हुये महीना भर हो गया था | इस बैच में दस लड़कियां थी , ये क्लास एक घंटे की ही होती पर बाद में भी एक घंटे और रुक कर लड़कियां वहीँ एक दूसरे पर अभ्यास भी करती थी | रूपा से बातचीत करके मुझे पता चल गया था | उसे अंग्रेजी बिलकुल भी नहीं आती है अब उसे सिखाना मेरे लिये भी एक चुनौती ही थी क्योंकि मै उसे बस सिखाना ही नहीं चाहती थी बल्कि मै उसे पारंगत कर देना चाहती थी |
''अगले दिन जब मै पहुंची तो वो आ चुकी थी | तीन महीने का कोर्स होता है और बैच शुरू हुये महीना भर हो गया था | इस बैच में दस लड़कियां थी , ये क्लास एक घंटे की ही होती पर बाद में भी एक घंटे और रुक कर लड़कियां वहीँ एक दूसरे पर अभ्यास भी करती थी | रूपा से बातचीत करके मुझे पता चल गया था | उसे अंग्रेजी बिलकुल भी नहीं आती है अब उसे सिखाना मेरे लिये भी एक चुनौती ही थी क्योंकि मै उसे बस सिखाना ही नहीं चाहती थी बल्कि मै उसे पारंगत कर देना चाहती थी |
मैने उसकी क्लासेस अलग से अकेले लेने का निर्णय लिया , वह पढ़ और लिख कर नहीं सिर्फ अभ्यास कर के ही सीख सकती थी | इसी लिये जब सब सीखते तब वह चुपचाप सुनती और देखती रहती | पंद्रह दिनों बाद धीरे-धीरे उससे अभ्यास करवाना शुरू किया | दो माह बीतते-बीतते उसका आत्मविश्वास लौटने लगा अब वह खुलने लगी |
वह मुस्कराती तो थी पर उसके मुख पर छाई गहन उदासी की परतें अभी भी गहरी थी बहुत गहरी |
कई बार सोचा उससे उसके बारे में पूछें पर दर्द की परतें कैसे खुरचें यह सोच कर टाल दिया | न जाने कैसा पीड़ादायक अतीत हो जरा सा ठेस लगे तो अभी तनिक सी संभली ये औरत कहीं टूट ही न जाये | यही सोचा |जब ये सहज होगी और इतना भरोसा करेगी तो खुदबखुद खोल देगी अपनी दर्द की पोटली , जिसे न जाने कब से ढो रही है ये |
वह मुस्कराती तो थी पर उसके मुख पर छाई गहन उदासी की परतें अभी भी गहरी थी बहुत गहरी |
कई बार सोचा उससे उसके बारे में पूछें पर दर्द की परतें कैसे खुरचें यह सोच कर टाल दिया | न जाने कैसा पीड़ादायक अतीत हो जरा सा ठेस लगे तो अभी तनिक सी संभली ये औरत कहीं टूट ही न जाये | यही सोचा |जब ये सहज होगी और इतना भरोसा करेगी तो खुदबखुद खोल देगी अपनी दर्द की पोटली , जिसे न जाने कब से ढो रही है ये |
आखिर वो दिन आ ही गया उस दिन वह बहुत देर से आई उसकी आँखे सूज कर बीरबहूटी हो रही थी चेहरा लाल मैने उससे पूछा -
''अरे क्या हो गया रूपा तबियत ठीक नहीं क्या ? आज देर भी हो गई अगर तबियत ठीक नहीं तो आराम करती आज | ''
मेरा इतना कहना था वो फफक-फफक के रो पड़ी | उसकी पीड़ा के तटबंध मानो टूट गये हों किसी भयानक आघात से , मैने भी नहीं रोका कुछ देर बह जाने दिया दर्द के उस सैलाब को |
कुछ देर बाद उसे उठा कर मुंह धुलवाया ,तब तक चाय आ गई -
'' उठो रूपा पहले चाय पीओ और कुछ खा लो | तुम्हारा खाना रखा है सुबह से तुमने कुछ खाया नहीं न | जाओ पहले कुछ खाओ फिर बात करते हैं | ''
वह बिना कुछ बोले चुपचाप चाय पीने लगी , खाना मैने ही उठ कर उसके सामने रख दिया -
'' खाओ अब पहले खाना खराब करोगी क्या ? ''
उसने थोड़ा सा खाना भी खा लिया | मै अपने साथ घर से उसका भी खाना लाती थी , काफी देर तक मौन पसरा रहा | कोई कुछ नहीं बोला | मेड बाहर जा कर बैठ गई |
आज सन्नाटा था सिर्फ रूपा और मै ही थी मैने उससे कहा -
आज सन्नाटा था सिर्फ रूपा और मै ही थी मैने उससे कहा -
'' अब अगर बताना चाहो तो बताओ क्या हुआ क्यों परेशान हो तुम ? रो कर आई थी न किसी ने कुछ कहा क्या ? ''
'' क्या बताऊँ कहाँ से शुरू करूँ दीदी | यह सब मेरी फूटी किस्मत ही तो है आज कोई कुछ भी कह देता है |शरम भी आती है | ये बताने में अपने ही लोग कैसा व्यवहार कर रहें है | सुबह सब काम करके ही यहाँ आते है पर एक कप चाय भी बिना जेठानी की इजाजत के नहीं पी सकते | वो चम्मच से दूध निकाल कर देती है तब बनाते है वो भी उनकी सब की चाय बनने के बाद | उसी उबली पत्ती में ही वो भी बिना चीनी की |अब क्या करूँ ! वो सब भी सहन कर ही रहे हैं महीनो से पर आज तो हद्द ही कर दिया उन्होंने कल से हमारी तबियत ठीक नहीं थी |जेठ जी ने हाल पूछ लिया |और कुछ पैसे देने लगे दवा के लिये बस वो गुस्से से बौरा गई बहुत चिल्लाई | ''
''रूपा अपना त्रियाचरित्र हिंया न देखाओ अब हमरा घर बख्स देओ | जोबन के जोर पर जेठ को फंसाते सरम नहीं आती तुझे | अरे डाईन भी एक दो घर बख्स देती है | अपना मरद खा गई दुई बरस पूरा होते ही अब छोटका देवर को तो अंचरा में गठियाई ही हो | अब बड़े को तो छोड़ दें रांड | इतनी ही आग लगी है तो जा चौराहे पर बैठ जा | बहुतेरे लौंडे मिल जइहें | उनकी भी पौबारह और तेरी देह का दरद भी मिट जइहे | छह महीना से रखे है |अपने बच्चन के मुंह का कौर खिला रही हैं हम तुम्हे | का अपने घर में आग लगावे के लिये | सुन कहे देते हैं आँख निकाल लेंगे जो इनकी तरफ देखी भी तो | ''
'' दीदी जेठ जी को हम बड़ा भाई का मान देते है |ये सुन कर तो हम शरम से मर गये | लगा हे भगवान धरती फट जाये हम समां जायें | पर हमारी किस्मत खोटी मौत भी न आयेगी वरना अपना पति बेसहारा काहे छोड़ जाता साल भर की बच्ची गोद में दे कर | ''
उसका गला भर आया आँखे बहने लगी यह एक स्त्री के अपमान की पराकाष्ठा थी |उसे उसके अपने ही लांछित कर रहे थे | कुछ पल के मौन के बाद मैने उससे उसके पति और बाकी घर वालों के बारे में पूछा |
उसने मुझे बताया उसके पिता बचपन में ही नहीं रहे | अब तो माँ भी नहीं रहीं दो बड़े भाई हैं | एक भाई गाँव में किराने की दूकान करते हैं | दूसरा भाई किसी मिल में नौकरी करता है | दोनों की माली हालत ऐसी नहीं वो बहन और भांजी का बोझ उठा सकें |
माँ के रहते ही उसकी शादी सत्रह साल की उम्र में कर दी , वो बस दसवीं तक गाँव में ही पढ़ी थी ,ससुराल में कोई कमी नहीं थी | खेत बाग़ चक्की सब थी पति तीन भाइयों में दूसरे नंबर पर थे | जब तक जीवित रहे सास हथेली का छाला बना कर रखती उसे पर उनकी आँख मूंदते ही कुछ दिन बाद सब बदलने लगा |
मैने उससे पूछा -
'' क्या हुआ था तुम्हारे पति को क्या शादी के समय से ही बीमार थे ? |''
'' न न दीदी वो शादी में एकदम स्वस्थ थे | नेहा के पापा बहुत सुंदर थे दीदी खूब लंबे चौड़े | सभी कहते थे बड़ी सुंदर जोड़ी है , तभी नजर लग गई उन्हें | बहुत प्यार करते थे हमको | दो बरस में दो जनम का नेह दिया और निर्मोही ने झटके से हाथ छुड़ा के आँख मूंद ली |अपनी नन्ही बच्ची का भी मोह नहीं लगा चला गया |हम दोनों को छोड़ कर , जब नेहा पेट में थी तभी से न जाने क्या हो गया धीरे-धीरे शरीर पीला पड़ गया गाँव में बहुत झाड़फूंक भी करवाई गई सब कहते बरम बाबा का कोप है तभी बैद बाबा की दवाई भी नहीं असर की |मेडिकल कालेज लाये बस पंद्रह दिन भरती रहे | जब लगा अब ठीक हो रहे है तभी अचानक हालत बिगड़ गई |सुबह ही से बेचैनी बढ़ गई हमारा हाथ थामे रहे सारा दिन अचानक खून की उलटी हुई और हाथ की पकड़ ढीली हो गई | बस छूट गया हाथ भी और साथ भी --दीदी |उन्हें पता था वो नहीं बचेंगे इसीलिए उसी दिन दोपहर में अपने अम्मा बाबू जी तीनो भाइयों को बुलाया सब बेड के चारों ओर खड़े थे इन्होने मेरा हाथ पकड़ा हुआ था | अपने छोटे भाई कुंवर को पास बुलाया और हाथ थाम के बोले -- कुंवर पता नहीं मै बचूं या नहीं मेरे बाद रूपा और नेहा का ख्याल तुम रखना | तुम्हारे भरोसे छोड़ रहा हूँ और उसी शाम सब ख़तम हो गया हमारा सुख सौभाग्य सब सिंदूर के साथ ही धुल गया |''
मैने रूपा की बातों से अंदाज़ा लगाया शायेद उसके पति को हेपटाईटिस बी थी और गाँव में बदपरहेज़ी और सही इलाज़ न होने से रूपा का घर उजड़ गया , धीरे-धीरे रूपा ने अपने जीवन के सारे पन्ने खोल दिये जो अब तक उसने अपने सीने में दबा छुपा के रखे थे |उसने बताया दीदी एक साल तक तो उसे होश ही नहीं था | बस मशीन की तरह घर का काम करती और थक कर सो जाती | जब जीने की चाह ही न हो और जीना भी पड़े तो जीवन बोझ सा घसीटा ही जाता है | नन्ही बिटिया का मुंह उसे मरने नहीं देता और पति का विछोह और लोगों के ताने और तरस उसे जीने नहीं दे रहे थे | उसका रूप उसका दुश्मन बन गया था |
सास ने तो उसके भाई को बुला कर उसे ले जाने को कहा पर वो भी नहीं ले गये | एक आदमी के रहते वह जिस घर की रानी थी उसी की आँख मूंदते ही नौकरानी बन गई | ऊपर से नाते रिश्ते की औरतों का प्रपंच उसे देखते ही मुंह बिचका कर बोल ही देती -
'' रूपमती रोवे भागमती राज करे -जवान बेटा खा गई कौन काम का रूप ''
'' दीदी तब मन करता अपना मुंह खरोंच कर बिगाड़ लें और खूब रोते उस दिन जब हम ऐसी ही किसी बात पर रो रहे थे कुंवर आ गये और अपने हाथों से आंसू पोछ दिये हमारे बोले -
'' अब नहीं रोना हम हैं न ''
हम अचकचा कर पीछे हट गये और उनका हाथ झटक दिया | पराये मर्द की छुअन अंगार की तरह लगी | पहले भी इनके रहते कुंवर हंसी मजाक करते थे | देवर का नाता था सो हमें कभी अटपटा नहीं लगा पर आज का स्पर्श कुछ और था शायेद उनकी नियत बदल गई और हमारी नियति |अब कुंवर हम माँ बेटी का ध्यान रखने लगे थे | नेहा को बाजार हाट भी ले जाते और उसकी जरूरत का सामान भी बिन कहे ला कर रख देते | हमें अपनी नहीं बस बेटी की फिकर थी दीदी , बस ये अपने चाचा ताऊ के आसरे पल जाये | हमारा क्या हम तो इसी घर में खट के जिंदगी पार कर लेंगे पर बिधिना ने भाग्य में अभी और कुछ भी लिखा था | धीरे-धीरे कुंवर नजदीक आते गये हम उनसे कितनी भी दूरी बना कर रखते फिर भी वह बहाने बहाने से नजदीक आने की जुगत करते रहते अब पत्थर पर भी लगतार पानी गिरे तो निशान पड़ ही जाता है हम तो मनुष्य ही हैं मन नरम होता गया हम भी सुख दुःख कुंवर जी से बांटने लगे ,उस रात रसोई समेटने में देर हो गई बिटिया दादी के पास सो गई थी हम अम्मा को दवा दूध देते और उनका पाँव दबा कर आते आते आधी रात हो गई थी बस चारपाई पर पीठ टिकाई ही थी की सामने कुंवर आ कर खड़े हो गये |''
'' इस समय यहाँ काहे आये ? कुछ चाहिये क्या हमको आवाज़ दे देते |''
'' हां चाहिये तो पर उसके लिये आवाज़ नहीं दे सकते थे हमें तुम्हारे पास ही आना पड़ता सो आ गये | ''
इतना कह कर हमारा हाथ थाम कर हमें कलेजे से लगा लिया हमने कहा -
'' ये पाप है कुंवर ये क्या कर रहे हो हाथ छोड़ो हमारा | ''
'' हाथ तो भईया पकड़ा कर गये हैं , तुम अब हमारी ज़िम्मेदारी हो हम ब्याह करेंगे तुम से भाई को वचन दिया है तो निभायेंगे | जल्दी ही अम्मा से बात करते हैं जब तुम हमारी ही हो क्या तो आज क्या कल भरोसा रखो हम पर | ''
और उस रात कुंवर ने अपने भाई की जगह ले ली हमारी जिंदगी में हम भी कोई देवी नहीं हैं , हाड़ माँस के ही बने है ,जब मन की सख्त माटी नरम हुई तो तन की भूख भी जाग गई -पहले तो दबे पाँव छुप कर कुंवर कमरे में आते रहे लेकिन बाद में घर वालों के सामने भी सारे परदे उतर गये अब रात हो या दिन वह हमारे कमरे में ही सो जाते अम्मा भी कुछ नहीं बोलती बड़ी जेठानी भी मौन सहमति दें दी |
समय गुजरता जा रहा था | हमारे दिन रात ख़ुशी से तो बीत रहे थे पर एक कचोट सी उठती दिल में इस रिश्ते से , हम बार-बार कुंवर से ब्याह के लिये कहते और हर बार उसका यही जवाब होता अरे कर लेंगे अम्मा से बात की है | हमने यह भी कहा मंदिर में ही मांग भर कर माला बदल लें हम लोग | पर वह कभी प्यार से तो कभी नाराज़ हो कर बात टाल देता , और रात को हमारे पांव पर लोटता आँख में आंसू भर लेता और हम पिघल जाते उसे समेट लेते अपने में और वह इस शरीर के पोर-पोर को अपने प्रेम से सरोबोर कर देता | कहता परेशान न हो जल्दी ही हम शादी कर लेंगे |
ऐसे ही बहलाते-फुसलाते दो तीन साल बीत गये | अब हमें लगने लगा यह लोग हमको बेवकूफ बना रहें हैं | अम्मा को घर की नौकरानी मिली है , और कुंवर को तो हमारा शरीर अय्याशी के लिये रोज़ ही मिल जाता है | इधर घर में होती सुनगुन से हमने अंदाज़ा लगा लिया अब अम्मा ही हमारी शादी के पक्ष में नहीं है | उनका मन बदल गया है ,कुंवर तो अगर वह दबाव डालती तो कर भी लेते पहले तो वह तैयार ही थे अब कुछ दिनों से भाभियों और माँ के बरगलाने में आ रहे थे | उन्हें भी अब कुंवारी कन्या से ब्याह करने की लालसा हो गई थी , कुछ लोग लड़का देखने भी आये और आनन-फानन में रिश्ता तय भी कर दिया गया |
यह दूसरा वज्रपात था हम पर , कलेजा दरक गया हमारा इस विश्वासघात से -बस कलप के रह गये | हम बहुत रोये पर कौन सुनता वहां कोई नही था जो हमारे आंसू पोंछता अम्मा जी मगन थी ब्याह की तैयारी में और कुंवर तो मुंह चुरा के काम के बहाने उसी दिन शहर चले गये जिस दिन रिश्ता तय हुआ शायेद हम से आँख मिलाने की ताब न थी , अम्मा से कुछ कहना ही बेकार था | उनके तो तेवर ही बदल गये थे फिर भी हमने उनसे कहा अम्मा ये क्या कर रही हैं आप ? हमारी जिंदगी खराब हो जायेगी उनका पैर पकड़ कर हिलक-हिलक कर रोये पर अम्मा न टसकी |काठ का करेजा हो गया उनका | उन्हें न अपने मरे हुये बेटे की बात याद रही न ही उसकी बच्ची और बीवी की तनिक भी चिंता | कुछ देर हमें रोता बिलखता देखती रही फिर बोली -
'' सुनो दुल्हिन अब मरे हुये के साथ जिंदन का तो नहीं झोक दिया जात ,हमहूँ महतारी हैं हमरा करेजा भी धधकता है अपने बेटा की सुध करके | छाती पै जांत का पाथर रखे हैं जो तुमको रखे हैं| तुम्हरी किस्मत में सुहाग होता तो हमार बेटा ही काहे जाता भरी जवानी मा अब का चाहत हो एक को तो खा ली तुम अब दुसरे वाले को भी तुम्ही से बियाह दें उसको भी लील लो तुम काहे रात दिन बेला कु बेला टसुये बहा के असगुन फैला रही हो ,रह तो रही हो कौन कमी है तुमको अब तक जैसे चलत रहा आगे भी चलत रही कुंवर दूनो का रख लेइहंय अब जाओ जा कर सोई जाओ बेकार का वितण्डा न खड़ा करो |''
इतना कह कर वह चादर ओढ़ कर सो गई हम उनकी बात सुन कर सन्न रह गये सर फट रहा था अब तो रोया भी नहीं जा रहा था आँसू सूख गये और दिमाग में आंधियां चल रही थी आँख मूंदते तो अम्मा की कर्कश आवाज़ सुनाई पड़ती एक को तो खा गई अब दूसरे को भी लील लो | अगले दिन कुंवर लौट आये दिन भर हम कुछ नहीं बोले पर रात को जैसे ही कमरे में घुसे हम कहा क्यूँ आये हो अब यहाँ निकल जाओ यहाँ से तुम्हे अपने भाई की आखिरी बात का भी लिहाज़ नहीं था तो काहे हमे बेवकूफ बनाते रहे झूठा प्रेम और ज़िम्मेदारी निभाने की बात कह कह कर खाली हमारी देह के लिये न ?
अब क्या रह गया है जो लेने आये हो | जो तुम्हे चाहिये था वो तो तुमने हासिल कर ही लिया | अब क्या देखने आये हो हम मर गये या जिंदा है ? अरे मर तो हम उसी दिन गये थे जब पति ने आँख मूंदी थी | सूख गया था मन के सुख का बिरवा फिर तुम आये हमारे जीवन में और ज्यों ही फिर से कोंपलें फूटने लगी तो पता चला ये धोखा था | नेह छोह सब झूठ पर गलती हमारी भी थी जो तुम पर आसानी से भरोसा कर लिया | काहे किया यह सोचते हैं तो लगता है पति की अंतिम इच्छा ,अकेलेपन का भय ,किसी के सहारे की चाह या फिर देह की दबी हुई भूख जो तुमने उभार दी कोई न कोई कमजोरी ही तो थी जो हम तुम पर निर्भर होते गये ,और तुमने नई देह की लालसा और दहेज़ के लालच में सब कुछ बिसार दिया | भाई को दिया वचन और इन तीन बरसों का नेह सब कुछ एक झटके में झटक दिया और हमें पत्नी बनाते बनाते रखैल बना दिया , पर अब नहीं अब बख्श दो हमें |सुनो कुंवर तुम्हारी जिस देह की गंध में हमारे रात -दिन गमकते थे अब वाही गंध हमें दुर्गन्ध लगती है | जाओ अब यहाँ से ,कभी मत आना | दूर रहो हमसे | जल्दी ही अपनी बेटी को लेकर हम यहाँ से चले जायेंगे | ''
उस रात कुंवर चुपचाप चले गये | न कुछ बोले न ही उनके चेहरे पर ही दुःख या पछतावा था बल्कि , उकताहट ही दिखी , उस दिन के बाद हम ने भी किसी से कुछ नहीं कहा |बस मन ही मन सोचते रहे इस नन्ही सी बेटी को लेकर कहाँ जायें | किस पर भरोसा करें | यही सोचते-बिचारते दस पंद्रह दिन और बीत गये |हम बिना कुछ बोले अपना काम धाम पहले की तरह ही निपटाते रहे | माँ बेटे दोनों को यही लगा, अब इसने समझौता कर लिया है | वैसे भी जायेगी कहाँ ! वो जानते थे मायके में तो ठौर मिलने से रही और बड़ी जेठानी शहर में तो अपने पास बुलायेंगी नहीं | वो वैसे भी बड़ी तेज़ स्वभाव की हैं सास से दो दिन भी नहीं पटती ठाढ़े जवाब देती | अम्मा उन्ही से सीधी रहती उनके एक बेटा और एक बेटी हैं , जेठ लखनऊ में मास्टर हैं | हमको बस यही एक आस दिखी | बस कुछ दिन का सहारा मिल जाये फिर तो कहीं कुछ भी काम करके हम माँ बेटी अपना गुजारा कर लेंगे |
बहुत सोच कर अब जाने का फैसला कर ही लिया और उस दिन सुबह जल्दी ही सारा काम निपटा दोपहर की बस से जाने का निर्णय कर लिया |
बस फिर हमने अपना और बिटिया का सामान लिया और जाने के लिये तैयार हो गये , एक हाथ से बैग दूसरे हाथ से बेटी का हाथ थाम कर हम बाहर जाने लगे तो अम्मा दरवाजे के बीच आ कर खड़ी हो गईं | उन्होंने आवाज़ दे कर सबको बुला लिया | कुंवर बाहर के दालान में बैठे थे जल्दी भाग कर आये | ससुर जी घर पर नहीं थे | दोपहर का खाना खाने वह घर आते बाकी समय उन्हें घर से कोई मतलब नहीं | वह बस दुकान और चक्की के हिसाब-किताब में लगे रहते बाकी जो अम्मा कहती उस पर मुहर लगा देते , अम्मा कुंवर की तरफ देख कर बोली --
'' रोक बेटा इसे कहाँ जा रही है ये समझा न इसको कौन कमी है जो घर छोड़ कर चल दी |
नाते रिश्तेदारी में हमार नाक कटवाई ये , सुन अगर देहरी से बाहर पाँव निकाली तू तो इस घर में कोई जगह नहीं होई तुम्हरे लिये , अरे इतनी बेसरमी तो नहीं देखी कहीं जिद ठान ली | अब जब लड़का मना कर दिया तो जबरन गले पड़ी जाय रही है या तो बियाह करो नहीं तो ये घर से निकल जायेंगी | जबरन कहीं ब्याह होता है अब बिटिया बड़ी हो रही है चाचा है पाल पोस कर ब्याह देगा भतीजी को | और तुम घर में रहो न जईसे अब तक रहीं कहा तो कुंवर दूनो को रख लेगा घर की बात भीतर ही रहे तो बेहतर | अब कुंवर की दुल्हिन के साथ तनिक समझौता तो तुमहूँ को करना होगा | चलो सामान रखो अब लड़कपन न करो , देखो सच तो ये है कोरी कुँवारी से ब्याह करे या पांच बरस की बिटिया की बैपरी महतारी से |''
इतना सुनते ही हमारे पूरे बदन में क्रोध से आग लग गई इतने दिनों का लिहाज़ शरम सब हम भूल गये , अम्मा हाथ पकड़ कर हमें भीतर ले जाने लगी एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और कहा -
'' सही कहा आपने अम्मा कोरी कुँवारी लड़की से जरुर ब्याह करे पर ये तो बताइए आपका लड़का कुंवारा है ? ये हमसे अच्छा कौन जानता है | इसी बैपरी महतारी ने आपके बेटे को तीन बरस खूब बैपरा | हर रात इस्तेमाल किया है | अब इन्होने हमें इस्तेमाल किया या हमने इन्हें बात तो एक ही हुई अब तो कुंवर जी भी कोरे नहीं रहे ''--
''आप हमें इसी घर में बहू बना कर लाईं थी अब रखैल बन कर रहने की सलाह दे रही हैं ?
जाने दीजिये ,अब अम्मा बहुत हो गया | अब हम नहीं रह पायेंगे यहाँ |''
बस हम बेटी को लेकर मायके आ गये कुछ दिन भाई के पास रह कर बिटिया को वहीँ छोड़ दिया | वह मामा मामी से खूब हिली मिली थी इस लिये हम निश्चिन्त थे |
भाई भाभी को सब बता कर हम लखनऊ आ गये जेठानी के पास | उन्हें सब पता था |अस्पताल से लेकर घर तक की सारी बात वह जानती थी |
हमने उनसे कहा हम को बस काम मिलने तक सहारा दे दीजिये | वह मान भी गईं |
सारा घर का काम हमने संभाल लिया और पास ही के सेंटर में टाईपिंग भी सीखने लगे |
हिंदी टाईपिंग सीखने में कोई परेशानी भी नहीं हुई |
तीन चार महीने सब ठीक रहा | जेठानी भी खुश थीं | उन्हें आराम था , पर शादी की खरीदारी के लिये अम्मा और कुंवर जब से कई चक्कर यहाँ आये तब से यहाँ के माहौल में कड़वाहट आने लगी न जाने क्या भर दिया अम्मा नें | जेठानी कान की कच्ची तो ये पहले से ही थी पर अब बहुत शक भी करने लगी | बात बात पर बिगड़ना और ताने देना कुछ दिनों से रोज़ का काम हो गया था | पर आज तो सीमा पार हो गईं |''
इतना कह कर वह रो पड़ी मेरा मन भी बहुत खराब हो गया उस दिन पार्लर वगैरह सब जल्दी बंद कर के मै घर वापस आ गई |
मै बार -बार यही सोच रही थी कितनी पीड़ा कितने अपमान से गुजरी होगी वह |तभी तो नहीं रोक पाई और खोल ही दी पीड़ा की वो पोटली जिसके भार तले अब वह सांस भी नहीं ले पा रही थी | अगले दिन जब मै जब सेंटर पहुंची तो रूपा पहले ही आ चुकी थी और काम में लगी थी , दोपहर तक बहुत व्यस्तता रहती उसके बाद ही सांस लेने की फुरसत मिलती |आज जैसे ही मै खाली हो कर बैठी रूपा पास आकर खड़ी हो गई | उसे नजर उठा कर देखा ही था कि वह बोल पड़ी -
'' दीदी आप हमसे नाराज़ तो नहीं हो | कल हम ने आपसे सब कुछ बताया कुछ भी नहीं छुपाया | यह भी नहीं सोचा आप हमारे बारे में क्या सोचेंगी ,पर आप से सब साझा करके मन हल्का हो गया | सच कहूँ तो यह भी लग रहा था आप क्या सोच रही होंगी | कहीं सब की तरह हमको गलत समझी तो ? बस यही सोच कर सो नहीं पाये , आप ही बताईये क्या हम गलत है ? ''
इतना कह कर वो मेरी तरफ देखने लगी मै उसकी तरफ देख कर अभी भी उसके अतीत में ही डूबी थी | बार-बार सोचती | क्या औरत कोई मिट्टी की हांड़ी है जो एक बार चूल्हे पर चढ़ गई तो जूठी हो गई और उस जूठी हांडी में मुंह मारने वाला मरद कभी जूठा नहीं होता आखिर क्यूँ ?
उस दिन मैने एक निश्चय भी किया आज के बाद अब इस बारे में कोई बात नहीं | फिर मैने उससे कहा -
'' नहीं रूपा तुम ने कुछ गलत नहीं किया | गलत तो तब होता जब तुम उनकी बात मान लेती |अब बस आज से इस बारे में कोई बात नहीं | बस अपना काम करो अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है |''
मेरी बात सुन कर उसकी पनियाई आँखों में मुस्कान तैर गई और सच में उस दिन के बाद अतीत मैने कभी नहीं कुरेदा , और उसे और कहा -
'' रूपा भूल जाओ वह सब | अब तुम्हें नये सिरे से जीवन शुरू करना है |अतीत को थामे रहने से वर्तमान और भविष्य के रास्ते नहीं खुलते | उस कड़वे काले अतीत को पीछे छोड़ कर आगे की सोचो और इसके लिये तुम्हे सबसे पहले अपने पाँव पर खड़ा होना है |फिर बेटी का भविष्य भी तो सोचना है | घबराओ मत , हम हैं न | हम सब सिखायेंगे बस तुम लगन से सीखो | ''
अब वह बहुत मन लगा कर सीखती थी | जैसे-जैसे समय बीतता गया उसके हाथों में सफाई आती गई | साल भर होते होते वह पूरी तरह से पारंगत हो गई | उसमे गजब का आत्मविश्वास आ गया |अब वह पहले वाली रूपा नहीं रही | उसमें एक सलीका आ गया | जो उसके पहनावे से लेकर उसकी बोलचाल में भी झलकने लगा | वह बहुत मेहनत करती थी थोड़ा बहुत पैसा तो उसे यहीं से मिल जाता था | मेरी सहेली पूर्वा भी उसे बहुत स्नेह करती | वह हाईकोर्ट में वकील थी और बहुत सारी उन संस्थाओं से भी जुड़ी थी जो औरतों और बेटियों के लिये काम करती थी | उसका दायरा बहुत विस्तृत था | उसके सम्पर्क में सब तरह की कामकाजी स्त्रियाँ थी | हर वर्ग की जिसमें स्कूल टीचरों से लेकर मेडिकल कालेज़ की डाक्टर और महिला अधिकारी भी थी | हम दोनों ने यही सोचा अगर इन्ही लोगों से बात की जाय कि ये लोग अपने घर पर ही रूपा को बुला कर काम करवा लें तो इसकी भी बहुत मदद हो जायेगी और उनका भी समय बचेगा | इसके लिये पूर्वा और मैने बहुत मेहनत की उन्हें यह समझाने में उनकी थोड़ी सी मदद किसी स्त्री का पूरा जीवन बदल सकती है इसलिये प्लीज़ इसकी छोटी भूलों को माफ़ करियेगा |''
शुरू-शुरू में पूर्वा और मै ही उसे पहुंचा देते , पर ये हमेशा संभव नहीं था | धीरे-धीरे वह खुद जाने लगी | वह सुबह से निकलती और कभी कभी शाम के सात आठ बज जाते तब तक तो रात होने लगती | एक दिन मैने उसे समझाया वो शाम छ बजे के बाद कहीं न जाये और बिलकुल अनजान घर भी जाने से मना कर दिया करे | वह अब वयस्त रहने लगी थी | हफ्ते में एक दिन वह मेरे पास जरुर आती कुछ पूछने और पूरे हफ्ते की रिपोर्ट देने कुछ सलाह लेने के लिये भी |
काम के सिलसिले में उसका तरह -तरह की औरतों से मिलना होता और तमाम तरह के खट्टे-मीठे अनुभव भी होते जो उसके लिये और उसके काम के लिये मददगार ही थे | वह बहुत भागदौड़ करती थी | उसका गोरा रंग धूप और कड़ी मेहनत से तांबई हो गया था पर वह थकी नहीं | धीरे-धीरे उसके हाथ में ठीक-ठाक पैसे आने लगे | नब्बे के दशक में पांच छह हज़ार रूपये मासिक वह कमा ही लेती | इन पैसों के लिये वह कितना पैदल चलती जिससे टेम्पो या बस के किराये के कुछ पैसे बचा सके ,रोज़ सुबह आठ बजे के बाद वह घर से एक बैग कंधे पर और एक हाथ में लेकर निकलती और शाम सात बजे तक ही लौट पाती | अब वह ट्रेंड ब्युटीशियन थी | उसके हाथ में सफाई भी आ गई और उसे काम भी बहुत मिलने लगा | कुछ दिनों बाद वह अपनी बेटी को भी ले आई और जेठानी के बच्चों के ही स्कूल में ही उसका एडमिशन करवा दिया | कुछ दिन तो शांति से गुज़रे अब कुछ पैसे भी जेठानी को देती और अक्सर घर का सामान भी ले ही आती | पर वह हमेशा असंतुष्ट ही रहती | कभी पैसे का रोना कभी घर में जगह की तंगी का बहाना कर हर दूसरे तीसरे दिन क्लेश करती | रूपा अभी एक एक पाई अपनी बेटी के लिये जोड़ रही थी | इसीलिए बाहर कहीं रहना नहीं चाहती घर का किराया तो जो लगता सो लगता ही पर बेटी को अकेले कैसे छोड़े यह सबसे बड़ी समस्या थी ,एक दिन जब वह काम से थकी हारी लौटी तो जेठानी ने उसे नया फरमान सुना ही दिया -
'' सुनो रूपा अब तुम महतारी बिटिया अपना खाना अलग बनाओ और जल्दी ही कमरा दूंढ़ लो | हमरे बच्चन की पढ़ाई खराब हो रही है अब एतना दिन तुमका राखे तुम्हरे जेठ की बंधी तनखाह में हम अपने ही बाल बच्चे पाल ले बहुत है अब तो तुमहू कमाने लगी हो | ''
'' अभी हम कहाँ जायेंगे दीदी ? इतनी जल्दी कमरा कहाँ मिलेगा अकेली औरत को | फिर नेहा को अकेले कहाँ छोड़ेंगे कितना खराब समय है | आप के पास रहती है तो हम को कोई फिकर नहीं होती | बिटिया अपनी बड़ी माँ के पास तो है ही | कभी देर सबेर हो जाती है तो भी कोई चिंता नहीं होती | दीदी उसका तो ख्याल करो ये आपकी ही बेटी है | आप जिस कोने में कहिये हम माँ बेटी गुजारा कर लेंगे |
खाना भी अलग बना लेंगे पर इस छत का सहारा न छीनो हमसे | ''
पर उसकी जेठानी नहीं मानी | बस इतनी कृपा किया सीढ़ी के नीचे खाना बनाने और दुछत्ती में सोने की जगह दे दी | जब की दो कमरे का मकान था बरामदा अलग से | अगर चाहती तो सिर्फ कमरे में तो सोने भर देती पर नहीं वह नहीं मानी | दो तीन महीने की किसी तरह बीते और तब उसे वही पास में ही कमरा किफायती किराये पर मिल गया | मकान मालकिन भी बहुत सहृदय थी रूपा की सारी परेशानी पड़ोसन होने के नाते अरसे से देख सुन रही थी | उन्होंने बड़े प्रेम से माँ बेटी को सहारा दिया |
रूपा का काम और बेटी की पढ़ाई अब अच्छी तरह चलने लगी | यहाँ उसे कभी लगा ही नहीं वो किरायेदार है | अपनी ही बड़ी बहन के घर जैसा माहौल वैसा ही स्नेह मिलता उसे | अब उस ने धीरे धीरे घर गृहस्थी का सामान भी जुटाना शुरू कर दिया | उसने सबसे पहले टेलीफोन लगवाया | मुझे याद है फोन लगते ही सबसे पहला फोन मुझे ही किया | वो बहुत खुश थी और मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई | फोन उसके लिये जरूरी भी था | उसी से उसे काम की बुकिंग मिलती थी वरना अक्सर अच्छे पैसे वाले काम छूट जाते तो वह बहुत दुखी होती | फिर तो एक एक कर के उसने अपनी मेहनत और पसीने की कमाई से घर में फ्रिज , गैस सब कुछ खरीद लिया |
,उधर जेठानी उसकी निंदा पुराण में कोई कमी नहीं रख रही थी | उस पर हर तरह के लांछन लगा चुकी पर अब तो रूपा सब झटक देती और अपने काम में लगी रहती |
जब चार पैसे आने लगे तो सास को बहू भी याद आई | वह भी साल में एक दो चक्कर लगा ही लेती | उनको गलती का अहसास होने लगा था | पर कभी सीधे तो कहा नहीं लेकिन उनकी बातों से झलक ही जाता की बड़ी साध से लाई बहू की सेवा से वह संतुष्ट नहीं हैं , रूपा ने कभी न उन्हें आने को कहा न ही आने से रोका ही बल्कि उनकी बीमारी में अपने पास रख कर उनकी दवा भी करवाई | माँ की बीमारी के बहाने कुंवर भी आये | इसी बहाने शायेद वह फिर से आने जाने की राह बनाना चाह रहे थे लेकिन रूपा की बेरुखी से उनकी हिम्मत नहीं पड़ी |
समय पानी की तरह बह रहा था | रूपा की बेटी अब सयानी हो गई थी | कहतें है न बेटी और बेल कब बढ़ गई पता ही नहीं चलता | अब वह बी कॉम कर रही थी |
वह बैंक में नौकरी करना चाहती थी | उसके लिये साथ -साथ तैयारी भी कर रही थी | रूपा ने उसे सब सुविधा दी थी | कोचिंग भी करवा दी थी | उसे लगता उसकी बेटी अपने पैरों पर खड़ी हो जाय और तब वह उसकी शादी करे |
वह अपने सपने अब अपनी बेटी की आँखों से देखना चाह रही थी | जो कुछ उसे नहीं मिला वह सब बेटी के आंचल में भर देना चाहती थी |
एक दिन दोनों मेरे मिठाई का डिब्बा ले कर आई और रूपा ने बेटी को आँख से ईशारा किया और नेहा मेरे पांव छूने को झुकी | मैने उसे रोकते हुये कहा -
'' नहीं हमारे यहाँ बेटियां पांव नहीं छूती लेकिन यह तो बताओ खुशखबरी क्या है ?''
रूपा ने बताया नेहा को किसी प्राईवेट बैंक में क्लर्क की नौकरी मिल गई है | मैने उसे गले लगा लिया | आज मुझे बहुत ख़ुशी हुई रूपा के सारे दुःख सारे कष्ट की साक्षी रही हूँ मै , उसके पाँव के छाले चेहरे की झाइयाँ सब गवाह है ,
नेहा अब इक्कीस -बाईस साल की हो रही थी | रूपा अब जब भी आती उसके ब्याह की चिंता करती पर उसे अपनी ही जाति में दामाद चाहिये था | पर उसके पास बेटी ही थी दहेज़ नहीं | वह सिर्फ सादगी से शादी कर सकती थी | उस दिन भी वह बहुत परेशान थी तो मैने उससे कहा वह गाँव जा कर नेहा के पिता के हिस्से की जायजाद मांग ले उस पर उसका और बेटी का ही हक है और बिना मांगे तो मिलने से रही |
उसे भी इस बात से कुछ आशा जगी | इधर उसकी सास भी कभी कभार राशन पानी खुद ही ले कर आ जाती और उसके के रोकने पर कहती ये उसका हक है , रूपा अपने ससुराल गई | अम्मा से बात भी की | वहां काफी कुछ बिक गया था जो बचा
खुचा था उसी में संतोष कर उसे बेचने की बात कर के वापस आ गई | उसे शादी के
लिये पैसे भी चाहिए थे और अब वह लड़का खोजने में लग गई | मेरे समझाने पर वह कहती ,-
'' दीदी जमाना खराब है हम किस तरह रहे हैं आप तो सब जानती ही हैं |
अब अकेली औरत जवान लड़की को ले कर कैसे रहे इस पापी दुनिया में | इसी चिंता में हमको अब रात -रात भर नींद नहीं आती | जब नेहा को ब्याह देंगे तभी चैन से सो पायेंगे हम | ''
रूपा ने बेटी के लिये सुयोग्य वर खोजना शुरू किया | उसने कई बार अख़बार में शादी का विज्ञापन भी दिया | बहुत सारे पत्र भी आये विज्ञापन के जवाब में कई सारे फोन भी आते रहे लेकिन बातचीत के बाद दुबारा कोई फोन नहीं करता शायेद वह लोग भांप जाते अकेली माँ सिवा बेटी के कुछ नहीं दे सकेगी | यहाँ बेटी की पढ़ाई उसके संस्कार , सौन्दर्य किसी गुण की कोई पूछ नहीं | फिर यह भी डर कुछ मिलना मिलाना तो है नही ऊपर से कहीं लड़की की माँ ही कहीं दहेज़ में न चली आये | वह उदास हो जाती और कहती -
'' अब तक तो बीत गई पर अब क्या करें दीदी | आपकी नेहा बिट्टो न जाने क्या लिखा कर लाई हैं भाग्य में , बस यह सुख से बस जायें अपने घर परिवार में |'' .
इतना कहते -कहते उसकी आँखे झरने लगी | मैने बहुत समझाया , मत परेशान हो |
जब समय होगा सब हो जायेगा | तुम देखती रहो एक दिन सब ठीक हो जायेगा |
नेहा के लिये विधाता ने किसी न किसी को तो बनाया ही होगा न | जब समय आयेगा तो वह भी मिल जायेगा |'' .
उस दिन इतवार था जब रूपा नेहा को लेकर सुबह से ही मेरे पास आ गई |
दोपहर के खाने के बाद मै बिट्टो से उसके काम के बारे में बात करने लगी | मुझे जब बहुत लाड़ आता तो उसे बिट्टो ही बुलाती |
मै उससे जितना पूछ रही थी वह उतना ही बोल रही थी | आज वह और दिनों की तरह चहक नहीं रही थी | न जाने क्यों नेहा अनमनी सी थी और रूपा भी चुप थी | कुछ देर बाद रूपा ने बताया नेहा को कोई लड़का पसंद है | उसका चेहरा यह बताते हुये बुझ गया | मानो कोई बड़ा सदमा लगा हो | ''
मैने उसे बहुत समझाया भी -
'' क्या हुआ इसमें कौन सी गलत बात हो गई उसने अगर पसंद किया | अब उसे कोई तुमसे मान मनुहार करके मांग रहा है तो अच्छा ही है न | कम से कम लालची तो नहीं है | वह बेटी की कदर करेगा | बस उसके बारे में सब पता करवाना है | अगर सब ठीक है तो कर दो ब्याह अब बिट्टो रानी का | ''
मैने नेहा से अकेले में बात की |आशीष उसके साथ ही कालेज में था | वह दोनों पढ़ाई के बाद अभी साल भर पहले ही मिले | जब वह किसी काम से बैंक आया | उसे नेहा और उसकी माँ के बारे में सब पहले से पता था | कालेज के जमाने से वह इसे पसंद करता था | पर नेहा के लिये वह सिर्फ उसका अच्छा मित्र ही था | अब जब दुबारा मिले तो अक्सर ही मुलाकात होने लगी | नेहा को वह पसंद था वह कंप्यूटर इंजीनयर था और गुडगाँव में ही उसका आफिस था , मैने रूपा से कहा -
''अब जब ईश्वर ने तुम्हारी परेशानी हल कर दी तो दुविधा किस बात की | बस उसके बारे में ठीक से पता कर के संतुष्ट हो लो | नेहा की ख़ुशी में तुम्हारी भी तो ख़ुशी है न | वरना जबरदस्ती कहीं और कर दोगी बेटी तुम्हारा मान रख लेगी और ब्याह कर भी लेगी पर क्या खुश रहेगी ? तुम इस बात को आराम से सोचना और फिर कोई फैसला करना |''
उसी दिन रात को नेहा का फोन आया धीरे से फुसफुसाते हुये बोली -
'' थैंक यू मौसी माँ मान गई आपकी बात | आप कितनी अच्छी हो आप से एक बात कहनी है बिट्टो लव यू मौसी आज आपकी बिट्टो बहुत खुश है |''
और मेरे चेहरे पर मुस्कान तैर गई ये बेटियां भी कितनी प्यारी होती है | ये चिड़ियाँ जब तक रहती है माँ का घर उनकी चहक से गुनगुनाता रहता है | फिर अचानक फुर्र से उड़ जाती है नया नीड़ बनाने को , उस दिन के बाद रूपा से बस दो बार भेंट हुई | एक बार जब वह शादी का कार्ड देने आई | दुबारा बेटी को विदा करने के कुछ दिन बाद आई तो बहुत उदास थी | नेहा की शादी के बाद वह अकेली हो गई थी कहने लगी -
'' अब तन मन दोनों थक गये दीदी अब काम नहीं होता | अब तो उमर भी हो गई है न पचास पार हो जायेगा इस साल जब जांगर नहीं चलेगा तो आप ही के पास आ जायेंगे | आप रखियेगा न हमें ? ''
कह कर फीकी सी मुस्कान तैर गई उसके चेहरे पर मैने समझाया --
'' बेटियां तो जाती ही है अपने घर तुम उदास होगी तो बिट्टो वहां परेशान होगी तुम्हारा जब मन करे मेरे पास आ जाया करो | चाहो तो हमेशा के लिये यहीं आ जाओ अपनी बड़ी बहन के पास | ''
उस दिन शाम को जो वह गई तो आज तीन बरस बाद उसका फोन आया | यही सब सब सोचते हुये न जाने कब मेरी आँख लग गई | रात के अंतिम पहर में सोई पर सुबह अपने वक्त से ही जग गई | आज कई जरुरी काम भी थे पर उन्हें चार बजे तक निपटाना भी था | उसने कहा था न वो आयेगी और फिर शाम सात बजे तक का सारा वक्त उसका |
कुछ काम मैने आज खतम किये बाकी के कल के लिये पेंडिंग कर दिये और चार बजते -बजते घर वापस आ गई , कल से बार-बार यही ख्याल आ रहा था क्या बताना चाहती है ? जरुर उसने अपना घर ले लिया होगा | उसे बड़ी चाह थी , उसके सर पर अपनी छत हो | भले ही एक कमरे का ही हो अपना घर हो | जहाँ से उसे कोई बाहर न कर सके | पर कहाँ से लेगी घर बेटी की शादी के बाद उसके पास इतनी रकम भी तो नहीं थी |
यही सब सोच कर मुझे भी उससे मिलने की उत्सुकता हो रही थी | अब पता नहीं कहाँ अटक गई ये रूपा भी अब तो साढ़े चार बज गये लगता है रास्ता भटक गई ठीक से तो लिखवा दिया था यही सब बड़बड़ाते हुये फोन उठा कर नंबर डायल करने ही जा रही थी की मेरे ठीक पीछे
से आवाज़ आई --
'' किसे फोन करने कर रही है दीदी ?''
लाबी का दरवाज़ा खुला था वो दबे पाँव आकर ठीक मेरे पीछे खड़ी थी , पलट कर देखा तो पल भर को उसे पहचान ही नहीं पाई | उसे देखती ही रह गई , कितना बदल गई थी वह | इस नये रूप में रूपा बहुत सुंदर लग रही थी | चेहरे पर चमक थी तीन साल पहले वाला वो तांबई चेहरा गुलाबी रंगत में बदल गया था | करीने से पहनी हल्की गुलाबी सिल्क की साड़ी , मांग में लाल सिंदूर और माथे पर सुर्ख बिंदी ,कलाई भर चूडियाँ गले में सोने का मंगलसूत्र , यह एक नई रूपा थी नये स्वरूप में | मै अवाक् उसे देखती ही रह गई सुखद आश्चर्य था यह | मैने उससे पूछा -
'' रूपा तुम हो अरे कब हुआ ये सब ? कौन है ? कैसे हुआ यह सब ? घर में कौन कौन है ?''
मैने एक साँस में ढेरों सवाल दाग दिये सच तो है सुखद आश्चर्य हुआ --
फिर मैने पूछा --
'' ख़ैर बहुत अच्छा हुआ बस एक बात बताओ ... रूपा तुम खुश हो न ?''
उसके चेहरे पर सलज्ज मुस्कान तैर गई लाज से और मुझे जवाब मिल गया |उसने कहा भी --
'' दीदी हम बहुत खुश हैं ये बहुत अच्छे है | बहुत ध्यान रखते हैं हमारा | अभी आफिस के बाद आयेंगे हमें लेने | हम उनसे आपकी बहुत बातें करते हैं उन्होंने ही कहा हम भी चलेंगे तुम्हारी दीदी से मिलने | हम से बोले तुम पहले चली जाओ और जी भर बातें कर लो अपनी दीदी से | इसलिए हम पहले आ गये | ''
रूपा देर तक बीते तीन बरसों में जो घटा सब सिलसिलेवार बताती रही | वह नानी बन गई है नेहा के डेढ़ साल का बेटा है | लाख मना करने पर भी आशीष और नेहा ने अख़बार में विज्ञापन निकलवाया और राजेन्द्र जी का रिश्ता आया | उनके दो बेटे हैं वही बात कर रहे थे | दोनों घरों के बच्चों ने रिश्ता तय किया और छह महीने पहले सादगी से शादी हो गई |
रूपा के पति का नाम राजेन्द्र गुप्ता है | वह बिक्रीकर विभाग में क्लास 2 अफसर है | पत्नी पांच छह साल पहले गुजर गई थी | दो बेटे हैं बस यही परिवार है | दोनों बेटे बहुत इज्ज़त और स्नेह करते हैं | वह बताती रही और हम सुनते रहे | आज उसके पास बताने को सिर्फ खुशियाँ थी | सुख थे इन्हें बांटते वह बहुत संतुष्ट लग रही थी | समय कब बीत गया पता ही न चला | साढ़े छह बजे राजेन्द्र जी भी आ गये | उनसे मिल कर उन्हें देख लगा वह सुलझे हुये गंभीर व्यक्ति हैं | रूपा खुश रहेगी | चाय नाश्ते के बाद दोनों चलने लगे | तो रूपा की आँख भर आई गले लग कर भेंटने के बाद जब उसके और राजेन्द्र जी के हाथ पर नेग का सिक्का रखा तो रूपा की डबडबाई आँखे बहने लगी , वह राजेन्द्र जी को देख कर बस इतना ही बोल पाई ----
'' सुनिये बस यही हमारा मायका है | ''
उम्र के तीसरे पड़ाव के इस जोड़े को देख कर ये ख्याल आया जिंदगी तेरे कितने रंग ...!
----दिव्या शुक्ला
पेंटिंग - सर प्रणाम सिंह
----दिव्या शुक्ला
पेंटिंग - सर प्रणाम सिंह